क्या 2024 और 2027 का चुनाव अकेले लड़ेंगे अखिलेश ?

इस समय उत्तर प्रदेश में केवल और केवल भारतीय जनता पार्टी ही राजनीतिक गतिविधियां करते हुए दिखाई पड़ रही हैं। विधानसभा चुनाव के बाद तो कांग्रेस जैसे गायब हो गई है। कभी कभार बसपा सुप्रीमो बहन मायावती भी ट्वीट के जरिये अपनी उपस्थिति दर्ज करा देती हैं। अभी हाल में ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा कि दलित व उपेक्षितो में भी स्वार्थी लोगों की कमी नहीं है। जिसमें कुछ मेरे रिश्तेदार भी हैं। उनमें से एक ऐसा है, जो मेरी गैरहाजरी में मेरे दिल्ली निवास पर सीबीआई छापे के बाद परिवार सहित चला गया। तब से ही छोटा भाई आनंद सरकारी नौकरी छोड़कर परिवार के साथ मेरी सेवा में पार्टी के कार्य में लगा है। जबकि इन स्वार्थी किस्म के लोगों ने खासकर बामसेफ, डीएस 4 आदि के नाम पर अनेक प्रकार के कागजी संगठन बनाए हुए हैं।

2022 के बाद जिस तरह से गठबंधन के एक एक साथी ने या तो दूरी बना ली, अलग होने का प्रयास कर रहे हैं।

विधानसभा चुनाव- 2022 के बाद जिस तरह से गठबंधन के एक एक साथी ने या तो दूरी बना ली, या अलग हो गए, या अलग होने का प्रयास कर रहे हैं। उससे अखिलेश यादव अकेले पड़ते हुए जरूर दिखाई दे रहे हैं। लेकिन आने वाले समय में एक बार फिर वे मजबूत होकर उभरेंगे। विगत आठ सालों में उन्होने उत्तर प्रदेश की राजनीति से जो अनुभव प्राप्त किया है। उस पर वे अमल करेंगे। किन कारणों से वे 2022 के चुनाव में हारे, उस पर उन्होने आत्ममंथन कर लिया है। इसी कारण सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा ज़ोरों पर है कि आगामी 2024 और 2027 का चुनाव अखिलेश यादव अकेले लड़ेंगे। जो लोग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं, वे जब किसी जानकार या अखिलेश के करीबी के पास पहुँचते हैं , तो उससे पूछते हैं कि क्या अखिलेश यादव 2024 और 2027 का चुनाव अकेले लड़ेंगे ? जो लोग अखिलेश यादव को नहीं जानते हैं, वे लोग पिछले प्रयोगों की असफलता के आधार पर यह कहते हैं कि हाँ, अखिलेश यादव अगला चुनाव अकेले लड़ेंगे, क्योंकि उनकी किसी से पट ही नहीं पाती। चूंकि अभी हाल में ही समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के सौतेली माता का देहांत हो गया।

जिसकी वजह से पूरा परिवार शोक में डूबा हुआ। कोई राजनीतिक गतिविधि सतह पर दिखाई नहीं दे रही है। इस कारण भी इस प्रकार का अंदेशा व्यक्त किया जा रहा है। लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि समाजवादी पार्टी का कोई भी गठबंधन टिक क्यों नहीं पा रहा है? जो लोग उनसे नाराज होते हैं, या विपक्ष से ताल्लुक रखते हैं, इसके लिए वे अखिलेश यादव को दोषी ठहरा देते हैं। जो लोग पक्ष के होते हैं। आजकल वे भी या तो मौन हो जाते हैं, या यह स्वीकार कर लेते हैं कि कोई न कोई कमी अखिलेश में ही होगी। अखिलेश यादव 2024 और 2027 में अकेले लड़ेंगे ? इस सवाल का जवाब देने के पूर्व आइये, समय – समय पर उनके द्वारा किए गए गठबंधनों और उसकी प्रकृति पर विचार कर लेते हैं।

 

2017 के विधानसभा चुनाव का गठबंधन हुआ था फेल

 

2017 के विधानसभा चुनाव अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। उसके युवा नेता राहुल गांधी के साथ उनकी जोड़ी बनी। दोनों ने मिल कर चुनाव प्रचार किया। अपार जन समूह उमड़ा। जिससे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं के मन में या आशा जागी कि चुनाव परिणाम सकारात्मक आएगा और सत्ता में एक बार फिर सपा की वापसी होगी। इस जोड़ी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा के सभी बड़े प्रचारकों ने हमला बोला। अपनी सभाओं और यात्राओं में उमड़े जन सैलाब से गदगद ये दोनों नेता जमीनी स्तर पर अपने अपने बूथ अध्यक्षों को नजरंदाज कर गए। सरकार में जिस तरह से उनकी उपेक्षा हुई थी, उससे वे बेहद नाराज थे। अखिलेश यादव ने उनकी नाराजगी दूर करने का प्रयास नहीं किया, वे निष्क्रिय रहे। उन्होने सिर्फ अपना वोट दिया। किसी को वोट देने को नहीं कहा। जिसकी वजह से जमीनी स्तर पर एक रिक्ति बन गई। जिसे नहीं भरा जा सका। इसके अलावा सरकार की पुनर्वापसी के लिए आश्वस्त सभी प्रत्याशियों ने खुद तो चुनाव जीतना चाहा, लेकिन अपने ही जिले की अन्य सीटों पर खड़े प्रत्याशी न जीत जाएँ, इसलिए उन्हें हराने का प्रयत्न किया। इस प्रकार एक ऐसा माहौल पैदा हो गया कि सपा का हर प्रत्याशी एक दूसरे को हरा रहा था। उसी का परिणाम हुआ कि सपा पचास सीटों से नीचे पहुँच गई। अपनी हार का जब अखिलेश यादव ने विश्लेषण किया, तो उन्हे हार के लिए दूसरे कारण समझ में आए। उन्हें ऐसा लगा कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की वजह से उनकी हार हुई। इस कारण उन्होने यह गठबंधन समाप्त कर दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने मायावती को 26 साल बाद गठबंधन के लिए राजी कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी। चुनाव परिणाम के पूर्व इस गठबंधन के लिए भी दोनों राजनीतिक दलों द्वारा कसीदे पढ़े गए। चुनाव पूर्व ही यह मान लिया गया कि उत्तर प्रदेश की 80 में से 80 सीटें सपा और बसपा गठबंधन जीतने जा रहा है।

मायावती और अखिलेश यादव ने कई सामूहिक जनसभाएं भी की। जिसमें अपार जन समूह उमड़ा। सतही राजनीति करने वाले विश्लेषकों ने भी यह मान लिया कि सपा बसपा गठबंधन क्लीन स्वीप करने जा रहा है। लेकिन जब परिणाम आया तो सपा को केवल पाँच सीटों पर संतोष करना पड़ा। बसपा को जरूर लाभ हुआ। वह दस सीटें जीतने में कामयाब रही। इसके बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने एकतरफा यह आरोप लगाते हुए कि सपा समर्थकों ने बसपा के प्रत्याशियों के पक्ष में अपना वोट ट्रांसफर नहीं कराया और गठबंधन तोड़ लिया।

 

अखिलेश यादव को ओम प्रकाश राजभर से बहुत अधिक उम्मीदें थी

 

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को ओम प्रकाश राजभर से बहुत अधिक उम्मीदें थी। लेकिन वे भी चकनाचूर हो गई। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की सियासी दोस्ती टूटने के संकेत दोनों ओर से लगातार मिल रहे हैं। सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश राजभर ने कहा कि फिलहाल तो हम अखिलेश यादव के ही साथ हैं। जिस दिन अखिलेश कहेंगे कि हम आपको अपने साथ नहीं रखेंगे, तो हम बसपा की ओर रुख करेंगे। मायावती से गठबंधन की बात करेंगे। बाबा साहब अंबेडकर की सोच को आगे बढ़ाने का काम कांशीराम ने किया।

उसी बात को लेकर मायावती, अखिलेश और हम भी आगे बढ़ रहे हैं। मायावती और अखिलेश दोनों लोगों को हम कई माध्यमों से कह चुके हैं कि जब दोनों लोग गरीब, कमजोर, पिछड़ा, दलित और वंचित की लड़ाई लड़ रहे हैं, तो आपस में क्यों लड़ रहे हैं? अखिलेश, मायावती को खत्म करना चाहते हैं। मायावती, अखिलेश को खत्म करना चाहती हैं। आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा हार गई थी। इसके बाद अखिलेश को राजभर ने नसीहत देते हुए कहा था कि अखिलेश एसी वाले कमरों से बाहर निकलें और जमीन पर काम करें। इसकी प्रतिक्रिया में सपा की ओर से कहा गया था कि राजभर खुद सपा की दी हुई कार के एसी में चलते हैं और दूसरों को नसीहत देते हैं। इसका उत्तर देते हुए ओम प्रकाश राजभर ने कहा कि वह फॉर्च्यूनर से नहीं चलते हैं।

इससे कमर टूट जाती है। वह अपने कार्यकर्ताओं और लोगों से मिलने के लिए अपनी इनोवा से ही जाते हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले ओम प्रकाश राजभर भाजपा पर हमलावर रहे, लेकिन अब उनके सुर बदल गए हैं। अब वे कह रहे हैं कि भाजपा जमीनी स्तर पर काम करती है। एसी में बैठकर राजनीति और जमीनी स्तर का काम नहीं किया जा सकता है। पूर्वांचल में राजभरों की अच्छी संख्या है। जिन पर उनकी तगड़ी पकड़ है। जिस तरह से ओम प्रकाश राजभर ने 2022 के विधानसभा में चुनाव लड़ा और अपने समाज और सपा के मतदाताओं के सहयोग से छह सीटें जीतने में कामयाब रहे। इस वजह से हर राजनीतिक दल उनके साथ 2024 के लिए गठबंधन करना चाहता है। इसी का फायदा उठा कर वे अलग होने के लिए उतावले हो रहे हैं।

 

उत्तर प्रदेश के मैदान में एक के बाद एक दांव फेल होने के बाद अखिलेश यादव डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कौन सा दांव खेलेंगे

 

उत्तर प्रदेश के मैदान में एक के बाद एक दांव फेल होने के बाद अखिलेश यादव डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कौन सा दांव खेलेंगे, इस पर अभी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। लेकिन जिस धैर्य और सूझ-बूझ का परिचय अखिलेश यादव ने दिया है। उससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक बार फिर सपा अपनी पुरानी परिपाटी पर लौटेगी। वह गठबंधन करने के बजाया विभिन्न जातियो में अपने नेता पैदा करेगी। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि किसी भी जाति के जिस नेता के कंधे पर अखिलेश यादव अपना हाथ रख देंगे, और भरी सभा में यह कह देंगे कि अमुक नेता आपकी जाति का नेता है। हमारी तरफ से आज से यही आपके नेता हैं। यह जो कहेंगे, उसे हम स्वीकार करेंगे और अगर सत्ता आई, तो इन्हे सरकार में सम्मान भी देंगे और आपके समाज की समस्याओं का समाधान भी करेंगे, तो उस समाज के लोग उसे अपना नेता मान लेंगे।

सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने इसी तरह विभिन्न जातियों में समाजवादी पार्टी के नेता पैदा किए थे। इसलिए अखिलेश यादव को इस नीति का परिपालन करने में कोई कठिनाई भी नहीं है। इसके बावजूद जब तक यह सभी रणनीतियों को एक एक करके अखिलेश यादव धरातल पर नही उतार देते, तब तक यह कहा जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अखिलेश कौन सा दांव आजमाएँगे, इस पर कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है।  आज की तारीख में वे बिल्‍कुल अकेले दिखाई पड़ रहे हैं और बाहरी से ज्‍यादा आंतरिक चुनौतियों का सामना करते नजर आ रहे है।

 

इस समस्त विश्लेषण के बाद अंत में मैं यही कहूँगा कि अगर अखिलेश यादव ने अक्तूबर से निकलना शुरू कर दिया, जैसा कि उन्होने तय किया है। अपने पुराने नेताओं से दूर, गाँव गाँव जाकर जनता के बीच में बैठना शुरू कर दिया, नए लड़कों को पार्टी से जोड़ना शुरू कर दिया। हर जिले में कैडर खड़ा कर दिया, उनके नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था कर दी। तो वह दिन दूर नहीं है, जब एक बार फिर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का वर्चस्व होगा। उनकी तैयारियो और रणनीतियों की रूपरेखा का विश्लेषण करने के बाद यह कह सकता हूँ कि 2024 और 2027 में चाहे वे अकेले लड़ें या किसी के साथ मिल कर, इतने मजबूत होंगे कि अकेले ही चुनाव फतह कर लेंगे।

 

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव (गुरुजी)

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक,

गांधीवादी/समाजवादी चिंतक,

पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

 

 

 

 

By Ram

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